🌷 *सुतीक्ष्ण मुनि(ऋषि) पर प्रभु श्रीराम जी की कृपा* 🌷
🌅 मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। नाम सुतीछन रति भगवाना॥
मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक॥
मुनि अगस्त्यजी के एक सुतीक्ष्ण नामक ज्ञानी शिष्य थे, उनकी भगवान में प्रीति थी। श्री रामजी के चरणों के सेवक थे। उन्हें स्वप्न में भी किसी दूसरे देवता का भरोसा नहीं था॥
जब इन्हे पता चला की भगवान इनके आश्रम पर आये हैं तो तब मुनि ने हृदय में धीरज धरकर बार-बार चरणों को स्पर्श किया। फिर प्रभु को अपने आश्रम में लाकर अनेक प्रकार से उनकी पूजा की॥ और भगवान की खूब स्तुति की है।
* तब मुनि हृदयँ धीर धरि गहि पद बारहिं बार।
निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार॥
भावार्थ:-तब मुनि ने हृदय में धीरज धरकर बार-बार चरणों को स्पर्श किया। फिर प्रभु को अपने आश्रम में लाकर अनेक प्रकार से उनकी पूजा की॥
* कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी॥
महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी॥
भावार्थ:-मुनि कहने लगे- हे प्रभो! मेरी विनती सुनिए। मैं किस प्रकार से आपकी स्तुति करूँ? आपकी महिमा अपार है और मेरी बुद्धि अल्प है। जैसे सूर्य के सामने जुगनू का उजाला!॥
* श्याम तामरस दाम शरीरं। जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं॥
पाणि चाप शर कटि तूणीरं। नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं॥
भावार्थ:-हे नीलकमल की माला के समान श्याम शरीर वाले! हे जटाओं का मुकुट और मुनियों के (वल्कल) वस्त्र पहने हुए, हाथों में धनुष-बाण लिए तथा कमर में तरकस कसे हुए श्री रामजी! मैं आपको निरंतर नमस्कार करता हूँ॥
* मोह विपिन घन दहन कृशानुः। संत सरोरुह कानन भानुः॥
निसिचर करि वरूथ मृगराजः। त्रास सदा नो भव खग बाजः॥
भावार्थ:-जो मोह रूपी घने वन को जलाने के लिए अग्नि हैं, संत रूपी कमलों के वन को प्रफुल्लित करने के लिए सूर्य हैं, राक्षस रूपी हाथियों के समूह को पछाड़ने के लिए सिंह हैं और भव (आवागमन) रूपी पक्षी को मारने के लिए बाज रूप हैं, वे प्रभु सदा हमारी रक्षा करें॥
* अरुण नयन राजीव सुवेशं। सीता नयन चकोर निशेशं॥
हर हृदि मानस बाल मरालं। नौमि राम उर बाहु विशालं॥
भावार्थ:-हे लाल कमल के समान नेत्र और सुंदर वेश वाले! सीताजी के नेत्र रूपी चकोर के चंद्रमा, शिवजी के हृदय रूपी मानसरोवर के बालहंस, विशाल हृदय और भुजा वाले श्री रामचंद्रजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥
* संशय सर्प ग्रसन उरगादः। शमन सुकर्कश तर्क विषादः॥
भव भंजन रंजन सुर यूथः। त्रातु सदा नो कृपा वरूथः॥
भावार्थ:-जो संशय रूपी सर्प को ग्रसने के लिए गरुड़ हैं, अत्यंत कठोर तर्क से उत्पन्न होने वाले विषाद का नाश करने वाले हैं, आवागमन को मिटाने वाले और देवताओं के समूह को आनंद देने वाले हैं, वे कृपा के समूह श्री रामजी सदा हमारी रक्षा करें॥
* निर्गुण सगुण विषम सम रूपं। ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं॥
अमलमखिलमनवद्यमपारं। नौमि राम भंजन महि भारं॥
भावार्थ:-हे निर्गुण, सगुण, विषम और समरूप! हे ज्ञान, वाणी और इंद्रियों से अतीत! हे अनुपम, निर्मल, संपूर्ण दोषरहित, अनंत एवं पृथ्वी का भार उतारने वाले श्री रामचंद्रजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥
* भक्त कल्पपादप आरामः। तर्जन क्रोध लोभ मद कामः॥
अति नागर भव सागर सेतुः। त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः॥
भावार्थ:-जो भक्तों के लिए कल्पवृक्ष के बगीचे हैं, क्रोध, लोभ, मद और काम को डराने वाले हैं, अत्यंत ही चतुर और संसार रूपी समुद्र से तरने के लिए सेतु रूप हैं, वे सूर्यकुल की ध्वजा श्री रामजी सदा मेरी रक्षा करें॥
* अतुलित भुज प्रताप बल धामः। कलि मल विपुल विभंजन नामः॥
धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः। संतत शं तनोतु मम रामः॥
भावार्थ:-जिनकी भुजाओं का प्रताप अतुलनीय है, जो बल के धाम हैं, जिनका नाम कलियुग के बड़े भारी पापों का नाश करने वाला है, जो धर्म के कवच (रक्षक) हैं और जिनके गुण समूह आनंद देने वाले हैं, वे श्री रामजी निरंतर मेरे कल्याण का विस्तार करें॥
* जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी। सब के हृदयँ निरंतर बासी॥
तदपि अनुज श्री सहित खरारी। बसतु मनसि मम काननचारी॥
भावार्थ:-यद्यपि आप निर्मल, व्यापक, अविनाशी और सबके हृदय में निरंतर निवास करने वाले हैं, तथापि हे खरारि श्री रामजी! लक्ष्मणजी और सीताजी सहित वन में विचरने वाले आप इसी रूप में मेरे हृदय में निवास कीजिए॥
* जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी। सगुन अगुन उर अंतरजामी॥
जो कोसलपति राजिव नयना। करउ सो राम हृदय मम अयना॥
भावार्थ:-हे स्वामी! आपको जो सगुण, निर्गुण और अंतर्यामी जानते हों, वे जाना करें, मेरे हृदय में तो कोसलपति कमलनयन श्री रामजी ही अपना घर बनावें॥
* अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥
सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए॥
भावार्थ:-ऐसा अभिमान भूलकर भी न छूटे कि मैं सेवक हूँ और श्री रघुनाथजी मेरे स्वामी हैं। मुनि के वचन सुनकर श्री रामजी मन में बहुत प्रसन्न हुए। तब उन्होंने हर्षित होकर श्रेष्ठ मुनि को हृदय से लगा लिया॥
मुनि के वचन सुनकर श्री रामजी मन में बहुत प्रसन्न हुए। तब उन्होंने हर्षित होकर श्रेष्ठ मुनि को हृदय से लगा लिया॥ और कहा-) हे मुनि! जो वर माँगो, वही मैं तुम्हें दूँ!
मुनि सुतीक्ष्णजी ने कहा- मैंने तो वर कभी माँगा ही नहीं। मुझे समझ ही नहीं पड़ता कि क्या माँगू, क्या नहीं? अतः हे रघुनाथजी! हे दासों को सुख देने वाले! आपको जो अच्छा लगे, मुझे वही दीजिए।
श्री रामचंद्रजी ने कहा- हे मुने! तुम प्रगाढ़ भक्ति, वैराग्य, विज्ञान और समस्त गुणों तथा ज्ञान के निधान हो जाओ।
तब मुनि बोले- प्रभु ने जो वरदान दिया, वह तो मैंने पा लिया। हे प्रभो! हे श्री रामजी! छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित धनुष-बाणधारी आप निष्काम (स्थिर) होकर मेरे हृदय रूपी आकाश में चंद्रमा की भाँति सदा निवास कीजिए॥
एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) ऐसा कहकर श्री रामचंद्रजी हर्षित होकर अगस्त्य ऋषि के पास चले। तब सुतीक्ष्णजी बोले- गुरु अगस्त्यजी का दर्शन पाए और इस आश्रम में आए मुझे बहुत दिन हो गए॥ अब मैं भी आप के साथ गुरुजी के पास चलता हूँ। मुनि की चतुरता देखकर कृपा के भंडार श्री रामजी ने उनको साथ ले लिया और दोनो भाई हँसने लगे॥
अगस्त्य मुनि पर राम कृपा ,,, श्री रामजी अगस्त्य मुनि के आश्रम पर पहुँचे। सुतीक्ष्ण तुरंत ही गुरु अगस्त्य के पास गए और दण्डवत् करके ऐसा कहने लगे॥ हे नाथ! अयोध्या के राजा दशरथजी के कुमार जगदाधार श्री रामचंद्रजी छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित आपसे मिलने आए हैं, जिनका हे देव! आप रात-दिन जप करते रहते हैं।
यह सुनते ही अगस्त्यजी तुरंत ही उठ दौड़े। जैसे ही भगवान को देखा तो नेत्रों में आनंद और प्रेम के आँसुओं का जल भर आया। दोनों भाई मुनि के चरण कमलों पर गिर पड़े। ऋषि ने (उठाकर) बड़े प्रेम से उन्हें हृदय से लगा लिया॥
फिर मुनि ने आदर सत्कार किया और बहुत प्रकार से प्रभु की पूजा करके कहा- मेरे समान भाग्यवान् आज दूसरा कोई नहीं है॥ वहां पर जितने भी मुनि थे प्रत्येक मुनि को श्री रामजी अपने ही सामने मुख करके बैठे दिखाई देते हैं और सब मुनि टकटकी लगाए उनके मुख को देख रहे हैं।
रामजी कहते हैं- प्रभु! आप सब जानते हैं मैं जिस कारण से वन में आया हूँ। हे प्रभो! अब आप मुझे वही सलाह दीजिए, जिस प्रकार मैं मुनियों के द्रोही राक्षसों को मारूँ।
प्रभु की वाणी सुनकर मुनि मुस्कुराए और बोले- हे नाथ! आपने क्या समझकर मुझसे यह प्रश्न किया? आपने समस्त लोकपालों के स्वामी होकर भी मुझसे मनुष्य की तरह प्रश्न किया। हे कृपा के धाम! मैं तो यह वर माँगता हूँ कि आप श्री सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित मेरे हृदय में (सदा) निवास कीजिए॥
आप सेवकों को सदा ही बड़ाई दिया करते हैं, इसी से हे रघुनाथजी! आपने मुझसे पूछा है एक परम मनोहर और पवित्र स्थान है, उसका नाम पंचवटी! हे प्रभो! आप दण्डक वन को (जहाँ पंचवटी है) पवित्र कीजिए और श्रेष्ठ मुनि गौतमजी के कठोर शाप को हर लीजिए।
मुनि की आज्ञा पाकर श्री रामचंद्रजी वहाँ से चल दिए और शीघ्र ही पंचवटी के निकट पहुँच गए॥ वहाँ गृध्रराज जटायु से भेंट हुई। उसके साथ बहुत प्रकार से प्रेम बढ़ाकर प्रभु श्री रामचंद्रजी गोदावरीजी के समीप पर्णकुटी छाकर रहने लगे॥
जब से श्री रामजी ने वहाँ निवास किया, तब से मुनि सुखी हो गए, उनका डर जाता रहा। पशु-पक्षी, जीव-जंतु, ऋषि-मुनि, जड़-चेतन सभी भगवान से आने से प्रसन्न हुए हैं।
🌲🌺🌲जय श्री राम⛳
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🌼जय श्री राधे कृष्णा🌼
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🌅 मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। नाम सुतीछन रति भगवाना॥
मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक॥
मुनि अगस्त्यजी के एक सुतीक्ष्ण नामक ज्ञानी शिष्य थे, उनकी भगवान में प्रीति थी। श्री रामजी के चरणों के सेवक थे। उन्हें स्वप्न में भी किसी दूसरे देवता का भरोसा नहीं था॥
जब इन्हे पता चला की भगवान इनके आश्रम पर आये हैं तो तब मुनि ने हृदय में धीरज धरकर बार-बार चरणों को स्पर्श किया। फिर प्रभु को अपने आश्रम में लाकर अनेक प्रकार से उनकी पूजा की॥ और भगवान की खूब स्तुति की है।
* तब मुनि हृदयँ धीर धरि गहि पद बारहिं बार।
निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार॥
भावार्थ:-तब मुनि ने हृदय में धीरज धरकर बार-बार चरणों को स्पर्श किया। फिर प्रभु को अपने आश्रम में लाकर अनेक प्रकार से उनकी पूजा की॥
* कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी॥
महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी॥
भावार्थ:-मुनि कहने लगे- हे प्रभो! मेरी विनती सुनिए। मैं किस प्रकार से आपकी स्तुति करूँ? आपकी महिमा अपार है और मेरी बुद्धि अल्प है। जैसे सूर्य के सामने जुगनू का उजाला!॥
* श्याम तामरस दाम शरीरं। जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं॥
पाणि चाप शर कटि तूणीरं। नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं॥
भावार्थ:-हे नीलकमल की माला के समान श्याम शरीर वाले! हे जटाओं का मुकुट और मुनियों के (वल्कल) वस्त्र पहने हुए, हाथों में धनुष-बाण लिए तथा कमर में तरकस कसे हुए श्री रामजी! मैं आपको निरंतर नमस्कार करता हूँ॥
* मोह विपिन घन दहन कृशानुः। संत सरोरुह कानन भानुः॥
निसिचर करि वरूथ मृगराजः। त्रास सदा नो भव खग बाजः॥
भावार्थ:-जो मोह रूपी घने वन को जलाने के लिए अग्नि हैं, संत रूपी कमलों के वन को प्रफुल्लित करने के लिए सूर्य हैं, राक्षस रूपी हाथियों के समूह को पछाड़ने के लिए सिंह हैं और भव (आवागमन) रूपी पक्षी को मारने के लिए बाज रूप हैं, वे प्रभु सदा हमारी रक्षा करें॥
* अरुण नयन राजीव सुवेशं। सीता नयन चकोर निशेशं॥
हर हृदि मानस बाल मरालं। नौमि राम उर बाहु विशालं॥
भावार्थ:-हे लाल कमल के समान नेत्र और सुंदर वेश वाले! सीताजी के नेत्र रूपी चकोर के चंद्रमा, शिवजी के हृदय रूपी मानसरोवर के बालहंस, विशाल हृदय और भुजा वाले श्री रामचंद्रजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥
* संशय सर्प ग्रसन उरगादः। शमन सुकर्कश तर्क विषादः॥
भव भंजन रंजन सुर यूथः। त्रातु सदा नो कृपा वरूथः॥
भावार्थ:-जो संशय रूपी सर्प को ग्रसने के लिए गरुड़ हैं, अत्यंत कठोर तर्क से उत्पन्न होने वाले विषाद का नाश करने वाले हैं, आवागमन को मिटाने वाले और देवताओं के समूह को आनंद देने वाले हैं, वे कृपा के समूह श्री रामजी सदा हमारी रक्षा करें॥
* निर्गुण सगुण विषम सम रूपं। ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं॥
अमलमखिलमनवद्यमपारं। नौमि राम भंजन महि भारं॥
भावार्थ:-हे निर्गुण, सगुण, विषम और समरूप! हे ज्ञान, वाणी और इंद्रियों से अतीत! हे अनुपम, निर्मल, संपूर्ण दोषरहित, अनंत एवं पृथ्वी का भार उतारने वाले श्री रामचंद्रजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥
* भक्त कल्पपादप आरामः। तर्जन क्रोध लोभ मद कामः॥
अति नागर भव सागर सेतुः। त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः॥
भावार्थ:-जो भक्तों के लिए कल्पवृक्ष के बगीचे हैं, क्रोध, लोभ, मद और काम को डराने वाले हैं, अत्यंत ही चतुर और संसार रूपी समुद्र से तरने के लिए सेतु रूप हैं, वे सूर्यकुल की ध्वजा श्री रामजी सदा मेरी रक्षा करें॥
* अतुलित भुज प्रताप बल धामः। कलि मल विपुल विभंजन नामः॥
धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः। संतत शं तनोतु मम रामः॥
भावार्थ:-जिनकी भुजाओं का प्रताप अतुलनीय है, जो बल के धाम हैं, जिनका नाम कलियुग के बड़े भारी पापों का नाश करने वाला है, जो धर्म के कवच (रक्षक) हैं और जिनके गुण समूह आनंद देने वाले हैं, वे श्री रामजी निरंतर मेरे कल्याण का विस्तार करें॥
* जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी। सब के हृदयँ निरंतर बासी॥
तदपि अनुज श्री सहित खरारी। बसतु मनसि मम काननचारी॥
भावार्थ:-यद्यपि आप निर्मल, व्यापक, अविनाशी और सबके हृदय में निरंतर निवास करने वाले हैं, तथापि हे खरारि श्री रामजी! लक्ष्मणजी और सीताजी सहित वन में विचरने वाले आप इसी रूप में मेरे हृदय में निवास कीजिए॥
* जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी। सगुन अगुन उर अंतरजामी॥
जो कोसलपति राजिव नयना। करउ सो राम हृदय मम अयना॥
भावार्थ:-हे स्वामी! आपको जो सगुण, निर्गुण और अंतर्यामी जानते हों, वे जाना करें, मेरे हृदय में तो कोसलपति कमलनयन श्री रामजी ही अपना घर बनावें॥
* अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥
सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए॥
भावार्थ:-ऐसा अभिमान भूलकर भी न छूटे कि मैं सेवक हूँ और श्री रघुनाथजी मेरे स्वामी हैं। मुनि के वचन सुनकर श्री रामजी मन में बहुत प्रसन्न हुए। तब उन्होंने हर्षित होकर श्रेष्ठ मुनि को हृदय से लगा लिया॥
मुनि के वचन सुनकर श्री रामजी मन में बहुत प्रसन्न हुए। तब उन्होंने हर्षित होकर श्रेष्ठ मुनि को हृदय से लगा लिया॥ और कहा-) हे मुनि! जो वर माँगो, वही मैं तुम्हें दूँ!
मुनि सुतीक्ष्णजी ने कहा- मैंने तो वर कभी माँगा ही नहीं। मुझे समझ ही नहीं पड़ता कि क्या माँगू, क्या नहीं? अतः हे रघुनाथजी! हे दासों को सुख देने वाले! आपको जो अच्छा लगे, मुझे वही दीजिए।
श्री रामचंद्रजी ने कहा- हे मुने! तुम प्रगाढ़ भक्ति, वैराग्य, विज्ञान और समस्त गुणों तथा ज्ञान के निधान हो जाओ।
तब मुनि बोले- प्रभु ने जो वरदान दिया, वह तो मैंने पा लिया। हे प्रभो! हे श्री रामजी! छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित धनुष-बाणधारी आप निष्काम (स्थिर) होकर मेरे हृदय रूपी आकाश में चंद्रमा की भाँति सदा निवास कीजिए॥
एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) ऐसा कहकर श्री रामचंद्रजी हर्षित होकर अगस्त्य ऋषि के पास चले। तब सुतीक्ष्णजी बोले- गुरु अगस्त्यजी का दर्शन पाए और इस आश्रम में आए मुझे बहुत दिन हो गए॥ अब मैं भी आप के साथ गुरुजी के पास चलता हूँ। मुनि की चतुरता देखकर कृपा के भंडार श्री रामजी ने उनको साथ ले लिया और दोनो भाई हँसने लगे॥
अगस्त्य मुनि पर राम कृपा ,,, श्री रामजी अगस्त्य मुनि के आश्रम पर पहुँचे। सुतीक्ष्ण तुरंत ही गुरु अगस्त्य के पास गए और दण्डवत् करके ऐसा कहने लगे॥ हे नाथ! अयोध्या के राजा दशरथजी के कुमार जगदाधार श्री रामचंद्रजी छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित आपसे मिलने आए हैं, जिनका हे देव! आप रात-दिन जप करते रहते हैं।
यह सुनते ही अगस्त्यजी तुरंत ही उठ दौड़े। जैसे ही भगवान को देखा तो नेत्रों में आनंद और प्रेम के आँसुओं का जल भर आया। दोनों भाई मुनि के चरण कमलों पर गिर पड़े। ऋषि ने (उठाकर) बड़े प्रेम से उन्हें हृदय से लगा लिया॥
फिर मुनि ने आदर सत्कार किया और बहुत प्रकार से प्रभु की पूजा करके कहा- मेरे समान भाग्यवान् आज दूसरा कोई नहीं है॥ वहां पर जितने भी मुनि थे प्रत्येक मुनि को श्री रामजी अपने ही सामने मुख करके बैठे दिखाई देते हैं और सब मुनि टकटकी लगाए उनके मुख को देख रहे हैं।
रामजी कहते हैं- प्रभु! आप सब जानते हैं मैं जिस कारण से वन में आया हूँ। हे प्रभो! अब आप मुझे वही सलाह दीजिए, जिस प्रकार मैं मुनियों के द्रोही राक्षसों को मारूँ।
प्रभु की वाणी सुनकर मुनि मुस्कुराए और बोले- हे नाथ! आपने क्या समझकर मुझसे यह प्रश्न किया? आपने समस्त लोकपालों के स्वामी होकर भी मुझसे मनुष्य की तरह प्रश्न किया। हे कृपा के धाम! मैं तो यह वर माँगता हूँ कि आप श्री सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित मेरे हृदय में (सदा) निवास कीजिए॥
आप सेवकों को सदा ही बड़ाई दिया करते हैं, इसी से हे रघुनाथजी! आपने मुझसे पूछा है एक परम मनोहर और पवित्र स्थान है, उसका नाम पंचवटी! हे प्रभो! आप दण्डक वन को (जहाँ पंचवटी है) पवित्र कीजिए और श्रेष्ठ मुनि गौतमजी के कठोर शाप को हर लीजिए।
मुनि की आज्ञा पाकर श्री रामचंद्रजी वहाँ से चल दिए और शीघ्र ही पंचवटी के निकट पहुँच गए॥ वहाँ गृध्रराज जटायु से भेंट हुई। उसके साथ बहुत प्रकार से प्रेम बढ़ाकर प्रभु श्री रामचंद्रजी गोदावरीजी के समीप पर्णकुटी छाकर रहने लगे॥
जब से श्री रामजी ने वहाँ निवास किया, तब से मुनि सुखी हो गए, उनका डर जाता रहा। पशु-पक्षी, जीव-जंतु, ऋषि-मुनि, जड़-चेतन सभी भगवान से आने से प्रसन्न हुए हैं।
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