आज हम आपको भगवान शिव के ऐसे स्वरुप के बारे में बताएंगे जहां आदमी
एक ही बार जाने की हिम्मत जुटा पाता है। इसे हिमाचल का केदारनाथ कहा जाता है। वैस तो शिव भक्त उनके दर्शन के लिए कही भी जाने से पीछे नहीं हटते हैं। तिब्बत स्थित मानसरोवर कैलाश के बाद किन्नर कैलाश को ही दूसरा बड़ा कैलाश पर्वत माना जाता है। सावन का महीना शुरू होते ही हिमाचल की खतरनाक कही जाने वाली किन्नर कैलाश यात्रा शुरू हो जाती है। इस स्थान को भगवान शिव का शीतकालीन प्रवास स्थल माना जाता है। किन्नर कैलाश सदियों से हिंदू व बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए आस्था का केंद्र रहा है। इस यात्रा के लिए देश भर से लाखों भक्त किन्नर कैलाश के दर्शन के लिए आते हैं। किन्नर कैलाश पर ब्रह्म कमल के हजारों पौधे देखे जा सकते हैं।
भगवान शिव की तपोस्थली किन्नौर के बौद्ध लोगों और हिंदू भक्तों की आस्था का केंद्र किन्नर कैलाश समुद्र तल से 24 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है। किन्नर कैलाश स्थित शिवलिंग की ऊंचाई 40 फीट और चौड़ाई 16 फीट है। हर वर्ष सैकड़ों शिव भक्त जुलाई व अगस्त में जंगल व खतरनाक दुर्गम मार्ग से हो कर किन्नर कैलाश पहुचते हैं। 1993 से पहले इस स्थान पर आम लोगों के आने-जाने पर प्रतिबंध था। 1993 में इसे पर्यटकों के लिए खोल दिया गया, जो 24000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यहां 40 फीट ऊंचे शिवलिंग हैं। यह हिंदू और बौद्ध दोनों के लिए पूजनीय स्थल है। इस शिवलिंग के चारों ओर परिक्रमा करने की इच्छा लिए भारी संख्या में श्रद्धालु यहां पर आते हैं। शिव भक्त जोखिम उठाते हुए स्वयं को रस्सियों से बांध कर यह परिक्रमा पूरी करते हैं। पूरे पर्वत का चक्कर लगाने में एक सप्ताह से दस दिन का समय लगता है। किन्नर कैलाश की यात्रा शुरू करने के लिए भक्तों को पोवारी से सतलुज नदी पार करनी पड़ती है। रास्ते में ही पार्वती कुंड पड़ता है। इस कुंड के बारे में मान्यता है कि यदि इस कुंड में सिक्का डाला जाए तो हर मुराद पूरी होती है और इस पवित्र कुंड में स्नान कर के भक्त किन्नर कैलाश के शिवलिंग के दर्शन के लिए आगे बढ़ते है। जहां उनको पूरे 24 घंटे लग जाते है। यहां से दो किलोमीटर दूर रेंगरिकटुगमा में एक बौद्ध मंदिर है। यहां लोग मृत आत्माओं की शान्ति के लिए दीप जलाते हैं। यह मंदिर बौद्ध व हिन्दू धर्म का संगम भी है। भगवान बुद्ध की अनेक छोटी-बड़ी मूर्तियों के बीच दुर्गा मां की भव्य मूर्ति भी स्थित है।
शिवलिंग की एक चमत्कारी बात यह है कि दिन में कई बार यह रंग बदलता है। सूर्योदय से पूर्व सफेद, सूर्योदय होने पर पीला, मध्याह्न काल में यह लाल हो जाता है और फिर क्रमश: पीला, सफेद होते हुए संध्या काल में काला हो जाता है। क्यों होता है ऐसा, इस रहस्य को अभी तक कोई नहीं समझ सका है।
ऐसे तय करे किन्नर कैलाश की यात्रा -
पहला दिन - सबसे पहले सभी यात्रियों को इंडो तिब्बत बॉर्डर पुलिस पोस्ट पर यात्रा के लिए अपना पंजीकरण कराना होता है। यह पोस्ट 8,727 फीट की ऊंचाई पर है। यह किन्नौर जिला मुख्यालय रेकांग प्यो से 41 किमी की दूरी पर है। उसके बाद लांबार के लिए प्रस्थान करना होता है। यह 9,678 फीट की ऊंचाई पर है। जो 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां जाने के लिए खच्चरों का सहारा लिया जा सकता है।
दूसरा दिन - इसके उपरांत 11,319 फीट की ऊंचाई पर स्थित चारांग के लिए चढ़ाई करनी होती है। जिसमें कुल 8 घंटे लगते हैं। लांबार के बाद ज्यादा ऊंचाई के कारण पेड़ों की संख्या कम होती जाती है। चारांग गांव के शुरू होते ही सिंचाई और स्वास्थ्य विभाग का गेस्ट हाउस मिलता है, जिसके आसपास टेंटों में यात्री विश्राम करते हैं। इसके बाद 6 घंटे की चढ़ाई वाले ललांति (14,108) के लिए चढ़ाई शुरू हो जाती है।
तीसरा दिन - चारांग से 2 किलोमीटर की ऊंचाई पर रंग्रिक तुंगमा का मंदिर स्थित है। इसके बारे में यह कहा जाता है कि बिना इस मंदिर के दर्शन किए हुए परिक्रमा अधूरी रहती है। इसके बद 14 घंटे लंबी चढ़ाई की शुरूआत हो जाती है।
चौथा दिन - इसी दिन जहां ललांति दर्रे से चारांग दर्रे के लिए लंबी चढ़ाई करनी होती है, वहीं दूसरी ओर चितकुल देवी की दर्शन हेतु लंबी दूरी तक उतरना होता है।
इस तरह से शिव भक्त अपनी यात्रा को पूरी करते है और भोले बाबा का आर्शीवाद प्राप्त करते हैं।
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